शायद
इस किताब का शीर्षक है शायद। ये शायद मेरे अंदर से आयी है। क्यूंकि मैंने इससे लिखते हुए महसूस किया है, जो आपको शायद कुछ कविताओं में दिख जाएगा की येह कवी लिख सकता है। शायद इस कवी का कुछ होजायेगा अगर किसी कविता के शकल में नहीं तो कहीं तो इससे बैठने की जगह तोह मिल जायेगी। साहित्य में न सही , बिना टिकट किसी ट्रैन में ही सही। कभी प्रेम से लैस और कभी पोलिटिकल विचार से बोझल इसकी अंदर की कविताएं बहुत कुछ कहने का प्रयास कर रही है। आप इनको कुछ नहीं भी समझे तो भी मैं सफल हो चूका हूँ। जैसे की अब्दुल हामिद अदम का शेर है : शायद मुझे निकाल के पछता रहे हों आप। महफ़िल में इस ख़याल से फिर आ गया हूँ मैं।