मस्तिष्क कोई बोतल नहीं जिसपर ढक्कन हो, वह एक कमरा है। उस कमरे पर दरवाज़े, नहीं परदे होते हैं। इन पर्दों पर हमारा वश नहीं होता। वह हवा के रुख के साथ उड़ते हैं। एकांत में मानो हवा का रुख मुड़ जाता है, और अंदर के जानवर बाहर आ जाते हैं - एक बन्दर जो सोफे पर कूदना चाहता है, एक भालू जो अपने दोनों हाथों से शहद चाटना चाहता है, एक चूहा जो उजाले में नहीं, अँधेरे में सुरक्षित है। ये कविताएँ इन ही जानवरों का चित्रण है - इन जानवरों में अपने आपको ढूंढने का प्रयास है।